Tuesday, December 24, 2013

तो फिर कैसा हो ?

तेरी ज़ुल्फ़ के साये में
अगर रात गुज़र जाए
तो फिर कैसा हो ?

सुबह के जैसा हो

तेरे नूर के सजदे में
अगर तारे टिमटिमाएं
तो फिर कैसा हो ?

शमा के जैसा हो

तेरी हंसी के झोंके में
अगर हवा भी इठलाये
तो फिर कैसा हो ?

सबा के जैसा हो 

तेरी रूह की  झलक से 

अगर चांदनी शरमाये
तो फिर कैसा हो ?

घटा के जैसा हो

तेरी बेवजह बातों में
अगर काम भी फंस जाए 
तो फिर कैसा हो?

वजह के जैसा हो

तेरी झील सी आँखों में
अगर बात फिसल जाए 
तो फिर कैसा हो?

पनाह के जैसा हो 

तेरे हुस्न की गर्मी में
अगर शाम पिघल जाए
तो फिर कैसा हो?

फना के जैसा हो 

तेरे चेहरे की रौनक से
अगर रंग बिखर आयें
तो फिर कैसा हो ?

हिना के जैसा हो 

तेरे इश्क़ के जादू में
अगर आदमी खो जाए
तो फिर कैसा हो ?

खुदाई जैसा हो 

किसी के इश्क़ के पहलू में
मेरा दिल भी मचल जाए
वो फिर कैसा हो ?

तुम्हारे जैसा हो


PS:
शमा:Light      सबा:morning breeze
     
घटा:cloud      पनाह:refuge
     
फना:death      पहलू:veil      हिना:mehandi

     
       

Tuesday, December 17, 2013

एक सपना



दो रास्ते;अंजाना मैं..
चलता रहा..

दो बंदूकें;निशाना मैं..
संभलता रहा..

दो लपटें;परवाना मैं..
जलता रहा..

दो नज़रें;नज़राना मैं..
झलकता रहा...

दो किससे;अफ़साना मैं
बनता रहा.

दो लहरें;किनारा मैं..
मचलता रहा...

दो पैमाने;ज़माना मैं..
छलकता रहा...

एक सपना;करवट मैं..
बदलता रहा..


12.05.2012

Saturday, December 7, 2013

ए रात तू सोती कैसे है?

बिस्कुट के कड़ कड़ मे..
हवा के सर सर मे.. 
ठंड की थर थर मे...

नाक की सुड़ सुड़ मे...
कुत्ते की गुर गुर मे..
मिक्स्चर की चुर चुर मे...

दरवाज़े की ठक ठक मे..
दिल की धक धक मे..
दीए की भक भक मे..

चाय की सुड़क सुड़क मे.. 
पानी की डूबक डूबक मे..
रोने के सुबक सुबक मे...

बिजली के कड़ कड़ मे..
पेपर के फड़ फड़ मे..
बादलों के घड़ घड़ मे..

बर्तन की ठन ठन मे..
सिक्कों की खन खन मे..
झींगुर के झन झन मे..

ए रात तू सोती कैसे है?
PS: An alliterated sattire/description of the sleepless long nights in Delhi

Wednesday, December 4, 2013

कुर्सी

कुर्सी
"हर बात नयी",ये बात कही,
पर फिर से वही कहानी है;
वही दो टके की जनता है,
वही जीत की राह बनानी है|

हर वोट यहाँ पेर प्यारा है,
उनका बस यही सहारा है;
घर छूट गया -कोई बात नहीं
बस कुर्सी का ही नारा है|

कुर्सी का बल ही तो बल है,
बत्ती की चकाचौंध ही संबल है
तेरे ही दर पे ऐ जनता ,
वोटों का मीठा सा फल है|

तू फल की चिंता छोड़ यहाँ,
बस अपना दरश दिखाना है;
वो ऐसा जादू छेड़ेंगे ,
हर वोट उन्हीं को जाना है|

मन में तेरे है बात कई,
पर बातों पर अधिकार नहीं;
सब वोट रिझा कर पा लेंगे,
बस और कोई सरोकार नहीं|

कुर्सी पर जैसे ही बैठे;
रहता उनको कुछ याद नहीं
हर भूले बिसरे गीतों की,
सुनता कोई फरियाद नहीं|


कुर्सी का सुख कुछ ऐसा है,
इसके दम पे ही पैसा है|
वो वोट तो बस एक चंदा था,
ये ही तो असली धंधा है|

उठ जाग ,की क्यूँ तू सोता है?
हर दुख को यूँ ही ढोता है;
आवाज़ उठा;बस बटन दबा;
फिर देखना क्या क्या होता है||

AMRIT RAJ

Tuesday, December 3, 2013

कुछ बिखरे से सवाल

कुछ साल पहले  की ही तो बात है जब मैं कॉलेज की गलियारों में मदमस्त  हाथी की तरह हुडदंग मचाया करता था. अमूमन ज्यादा सोचता नहीं था बस जो मन में आता था वो करता था।पढ़ने में ज्यादा मन लगता नहीं था तो इधर उधर कि चुहलबाजियों में समय काटा लेता था.कॉलेज भी मैं कुछ ख़ास सोच कर आया नहीं था,बस एक ही सोच शुरू से ही मन में घर कर गयी थी कि कुछ  अलग करना है।पर ये मेरे भाग्य का खेल बोलिये या फिर मेरी डेस्टिनी;कॉलेज के चार साल कुछ ऐसे छु-मंतर हुए कि ये सोच सोच ही रह गयी। इसमें मेरी गलती है भी और नहीं भी ;एक तो मैं ठहरा निखट्टू आलसी और दूसरा  मुझे ज्यादातर चीज़ें बैठे बिठाये प्लेट पे मिल गयीं। वो इंजीनियरिंग टर्म में कहते हैं ना कि ज्यादा फाइट नहीं मारनी पड़ी। तो status quo बनाये रखने में ही भलाई समझी और कुछ अलग करने के लिए मन से एफर्ट नहीं किया।बस दोस्तों के साथ गपबाजी और हवाबाजी में ही समय F1 कार की तरह सांय करके निकल गया.

खैर कुछ अलग नहीं करने का मलाल भी नहीं है क्यूंकि मैं ये  कभी निश्चित ही  नहीं  कर पाया  था कि करना क्या  है.बस  बहते पानी की तरह  इधर उधर अटखेलियां खाता  रहा कॉलेज  के चारों साल.पर  ये जरूर है कि जितना सीखा ,जो कुछ देखा सब एक इंद्रधनुष की तरह अब भी मन के पोलराइड पे  सन्डे के ४ बजे के शो की तरह उसी उत्साह के साथ रेगुलरली  आता है.

शुरू से ही मुझे चीज़ें बहुत कम एफर्ट करके ही मिल गयीं हैं ;वैसे तो मुझे अपने मुह मियाँ मिट्ठू नहीं बनना चाहिए पर कुछ टैलेंट तो जरुर है जो भगवान् ने मुझे अभिमन्यु  की तरह माँ की  पेट से ही दिया है ;ये टैलेंट मुझे हर वक़्त बचाता रहता  है। बचपन में शायद निचली  क्लास में मैं टॉप कर गया था और इसका श्रेय मेरी माँ को ही जाएगा मुझे नहीं ।उसके बाद तेज़ होने का एक टैग  लग गया;और अपनी मार्किट वैल्यू बनाये रखने के लिए मैंने फिर रेगुलरली ही टॉप किया। ये सिलसिला अच्छे खासे दिनों तक चला जो जाके टेंथ(10 th) क्लास में ब्रेक हुआ। उसके बाद भी मैंने एक above average स्टैण्डर्ड बनाये रखा। पर सच कहूं तो मुझे याद नहीं कि मैंने शुरूआती दिनों को छोड़ के कभी  बहुत मन से एफर्ट किया हो -या तो एग्जाम आने से पहले एक डर सा बन जाता था और अपनी इज्जत बचाने के लिए मैं पढाई करता था या फिर वो एक शो ऑफ स्टेटस बनाये रखने का मज़ा था। खैर जो भी था ऐसा नहीं है कि मैं बांकी चीज़ों में इन्वॉल्व्ड नहीं था ;मुझे याद है मैंने बचपन में गाने बजाने;स्किट ;डिबेट ;रेस,क्विज; रेसिटेशन सब में इनाम जीते हैं। पर सबसे बड़ी बात ये है कि इन चीज़ों में भी मैंने बहुत ज्यादा एफर्ट नहीं किया है ;मसलन मुझे गाने का बहुत  शौक हुआ करता था और अभी भी है ;पर मैंने कभी सीखने की कोशिश नहीं की ;बांकी चीज़ों का भी शौक धीरे धीरे जाता रहा. फिर  ऊँची क्लास में एक अलग ही होड़ थी तो जो बचा हुआ मैटर  था वो भी स्वाहा हो गया.

बचपन के इस होड़ में मुझे दो चीज़ें विरासत में मिलीं एक तो procastination और दूसरा confusion.Confusion इसलिए क्यूंकि मैं इन चीज़ों में इस कदर खोया हुआ रहा कि कभी ये सही से decide ही नहीं कर पाया कि करना क्या है.IIT कि तैयारी भी कुछ येही सोच के की  थी कि अगर  तर  गए तो जीवन का ध्येय मिल जाएगा;ये सोच बचकाना थी पर आखिर मैं था तो बच्चा ही.खैर मेरी directionless और कम मेहनत कि वजह से मैं एक above average प्रीमियर  कॉलेज में जाके गिरा;कॉलेज भी मैं कुछ ऐसी ही सोच से आया था कि पढाई के अलावा सबकुछ करूँगा।पढाई के अलावा "सबकुछ" तो नहीं किया पर कुछ कुछ जरुर किया और बांकी चीज़ों के बारे में बस day dream करता रहा। खैर कॉलेज में दो बहुत अच्छी चीज़ें  हुईं एक तो हवाबाज़ दोस्त और दूसरा कॉलेज का  dramatics club. इन सब वजह से सोच में एक बदलाव जरूर आया और मेरा  रुझान फिल्मों ; लेखन;और बहुत सी चीज़ों में वापस जाग गया। मैंने उतना एफर्ट कॉलेज में  भी नहीं किया था पर फिर भी इन  सब से  इतना क्लियर हो गया था कि मेरा इंटरेस्ट क्या है.

इसके बाद फिर वही कहानी हुई जो होती आयी है। एक अच्छी नौकरी लग गयी और फिर  सबकुछ  मैंने  ठन्डे बस्ते में  डाल दिया। 6-8  महीने बहुत मस्ती की पर फिर कुछ दिनों बाद नौकरी भी जेल सी लगने लगी।बारहवीं से ही एक स्कूल खोलने का सपना था.Engineering में आके भी कई बार सोचा था इसके बारे में; तो सोचा कुछ इस मार्फ़त किया जाए इसीलिए Teach फॉर  India के लिए अप्लाई किया। सबकुछ सही हुआ;प्रोफाइल सेलेक्ट हुआ ;असेसमेंट भी अच्छा रहा बस इंटरव्यू में मैं शायद  उतना ऑब्जेक्टिव नहीं था ;उन्होंने ना कर दिया;मुझे नौकरी रास आ नहीं रही थी तो एक बड़ा decision लिया कि UPSC की तैयारी की जाए। कुछ सोशल करने  की इच्छा थी और फिर वो शो ऑफ फैक्टर भी था शायद जो बचपन से मेरे साथ tagged रहा.इसलिए बोरिया बिस्तर बाँध के  मैं दिल्ली आ गया और फिर वही घिसने की कहानी ;फिर वही कम एफर्ट में ज्यादा की आदत ऊपर से अपने बांकी इंटरेस्ट को छोड़ने की इच्छा भी नहीं थी ;सबकुछ बदस्तूर जारी रहा लेकिन इस बार सबकुछ वैसा नहीं हुआ जैसा मैं चाहता  था;जो भी इंटरेस्ट था  धीरे धीरे दूर होता गया और पढाई भी कुछ ख़ास नहीं हुई;नतीजा :"बाबाजी का ठुल्लु"। फिर से वो confusion बादल की  ओंट से बाहर आके आग उगलने लगा ;पर मैंने ज्यादा कुछ किया नहीं इसके बारे में।अपनी "chill maaro" की philosophy follow करता रहा। लेकिन जब अभी रीसेंट में मैं डेंगू  से ग्रसित था तो फिर हॉस्पिटल की बेड पर पड़ा पड़ा कुढ़ रहा था। उसी समय decide किया कि फिर से लिखना शुरू करूँगा ;फिर से अपने पुराने interests खँगालूँगा।बहते रहना ही ज़िन्दगी का मकसद है।रास्ता खुद  बखुद निकल जाता है। तो फेविकोल के tagline के जैसा मैं अपने interests को पकड़े रहूँगा  छोडूंगा  नहीं

अब भी कुछ सवाल जरुर हैं जिनके जवाब मेरे पास नहीं हैं  पर जिन सवालों के जवाब मेरे पास हैं;उन्हें मैं भूलना नहीं चाहता।बांकी अब रास्ते निकलने लगे हैं;अभी कॉलेज के कुछ दोस्तों ने एक ऑनलाइन शॉर्टफिल्म प्रोडक्शन खोला है "Loos-e-motions"  मैं भी उसका हिस्सा हूँ. हमने अपना पहला विडियो निकाल लिया है..रिस्पांस अच्छा है। ये एक अच्छा सफ़र होगा ये मेरी सोच है..इसी तरह दिल्ली में मैंने "PACH " करके एक ग्रुप ज्वाइन किया है।"PACH" माने Poetry and Cheap Humor. यहाँ  Poetry तो है पर cheap कुछ भी नहीं है. हर तरह के लोग हैं यहाँ  और देख के;सुन के आश्चर्य  होता है कि अब भी बहुत से लोगों की सोच कितनी उम्दा है और मैं सोचता था हमारी  generation पूरी तरह खोखली है. हाँ यहाँ एक चीज़ जरुर cheap  है और वो है लोगों कि हंसी। free में मिल जाती है.
अभी कुछ दिनों पहले एक विडियो देख रहा था उसी के बैकग्राउंड में ये लेख लिखा है.मुझे याद है जब मैं 6th क्लास में था तो मैं एक मंदिर गया था वहाँ पे लोग अपनी मनोकामना दीवारों पे लिखते थे ;और मैंने लिखा था "मैं बड़ा आदमी बनना चाहता हूँ"। उस समय शायद बड़े से मेरा मतलब famous से था। अब भी मैं बड़ा आदमी तो बनना चाहता हूँ पर वैसा बड़ा आदमी जिसका दिल बड़ा हो;जिसका मन बड़ा हो;जिसके सपने बड़े हों। वो बचपन वाला बच्चा अब बड़ा हो गया है.आमीन

ये रहा वो विडियो। Dreams Unborn


Loos-e-motions ka video link jo humne banaaya hai:
http://www.youtube.com/watch?v=qfwC6xBqTVI&feature=youtu.be

देखो मगर प्यार से

My love for adjectives
PS:the sound comes if read in a particular manner with pause

बेढब उँची छोटी लंबी चौड़ी 
बैठी उठी चलती रूकी दौड़ी 
हल्का फुल्का ज़्यादा थोड़ा कम
बुझा जला भुना ठंडा गरम

खट्टा मीठा कसैला तीखा नमकीन 
काला उजला नीला हरा रंगीन
उपर नीचे पहले आगे पीछे
सड़े गले कच्चे पक्के अच्छे

मद्धम गहरे धुंधले चटक रुपहले
बादशाह बेगम गुलाम नहले दहले
सीधा टेढ़ा आड़ा तिरछा गोल
मोटा पतला हल्का भारी ढोल

भरा पूरा खाली सूना घना
ढला गिरा लदा झुका तना
हँसी ख़ुशी रोते गाते हैरान
बच्चे बूढ़े जीव जन्तु इंसान

1.12.2013

Wednesday, November 20, 2013

परिचय

आपाधापी  में कशमकश  में ,कभी इस रस में कभी उस रस में
जीवन के २ ४ बरस में,  अब भी हूँ मैं असमंजस में

आनंद में अचरज में ,कभी  सपने  में कभी हरकत में
ख़ामोशी में फुर्सत में ,अब भी हूँ मैं असमंजस  में

दुनियादारी में दुकानदारी में;कभी मन से कभी लाचारी में
रणभूमि में सर्कस में , अब भी हूँ मैं असमंजस में


अभिनय में आचरण में ,कभी ह्रदय से कभी अहम् में
मधुर में कर्कश में,अब भी हूँ मैं असमंजस में

आखेट में विचरण में  ,कभी थल पर  कभी गगन  में
शिथिलता में करतब में,अब भी हूँ मैं असमंजस में

क्रोध में स्मरण  में,कभी सोचकर कभी मगन में
नास्तिकता में मजहब में,अब भी हूँ मैं असमंजस में







Monday, November 18, 2013

FIR SE WOH BACHPAN KE DIN JEENE KA MAN KARTA HAI


ON CHILDREN'S DAY: AN OLD POEM
fir wahi avon cycle chalane ka jee karta hai...
fir se ret mein ghar banane ka jee karta hai...
fir se skool bas mein chad jane ka jee karta hai..
fir se wahi bachpan beetane ka jee karta hai...

fir se maa ki daant sun ke uthne ka man karta hai..
fir se chaat ke thele pe rookne ka man karta hai...
fir se apne uniform ko ghisne ka man karta hai...
fir se bas ki bheed mein peesne ka man karta hai..

fir se homewrk ki tnsn lene ka man karta hai..
fir se lunch mein khelne ka man karta hai....
fir se papa ki daant jhelne ka man karta hai...
fir se pedon pe chad ke hilne ka man karta hai...

fir se copy bhul jaane ka man karta hai...
fir se bahane banane ka man karta hai....
fir se baaris mein bheeg jaane ka man karta hai..
fir se maa ke pair dabaane ka man karta hai...

fir se gullak mein paise daalne ka man karta hai..
fir se papa ke pocket se paise nikalne ka man karta hai..
fir se kisi jhabre puppy ko paalne ka man karta hai..
fir se wahi pal jeene ka man karta hai....

fir se maa ki god me sone ka man karta hai,..
fir se papa ki pitai se rone ka man karta hai...
fir se wahi abcd likhne ka man karta ...
fir se woh bachpan ke din jeene ka man karta hai...
BY AMRIT RAJ
i have changed a lot...
3.07.2010

Friday, August 30, 2013

एक राह चुननी है...और चलते जाना है

छुप के चलते हैं दूसरों की परछाईओं मे.. 
चुपके से झाँक लेते हैं बादलों की ओट से.. 
बारिश की बूँदों को महसूस करते हैं... 
फिर सो जाते हैं चादर ओढ़ के... 
सूरज की किरणों से आँखें खिल उठती हैं.. 
रोशनी से मन के पन्नो मे उजाला करते हैं... 
फिर कुछ लिख पड़ते हैं उन पन्नों पे.. 
कभी लिखते कभी मिटाते;पीछे और आगे को पीछे छोड़ के... 

घर से निकल कर सड़कों पे घूमते हैं.. 
राहों का मिलना बिछड़ना देखा करते हैं... 
भीड़ को बिखरता सिमटता देखते हैं.. 
किस भीड़ मे मिलें सोचा करते हैं मोड़ पे... 

टेढ़ी सीधी राहों मे... 
उलझी सुलझी बातों मे..
बनती बिगड़ती तकदीर है कहीं चौकन्नी खड़ी.. 
घटना बढ़ना खेल है;ज़िंदगी नही ज़ीनी जोड़ तोड़ के... 

कुछ बातें समझ के भी समझ नही आतीं... 
कुछ बातों का ना समझना ही ठीक है.. 
बस एक राह चुननी है.. 
और चलते जाना है;रुकना नही है किसी मोड़ पे.. 

Amrit Raj
PS:Confusion is not a hindrance..Its jst keeps a check on life...Moving forward depends on how you check in and check out..



19.11.2011

CHOCOLATE

When everyday seems to be the same in life,we neglect small incidents as a forgotten gtalk chat list friend who just comes online.The same happened a couple of weeeks back.

It was a usual boring day at office and i was thinking of ways to escape out and get some air.Somehow at the shed of dawn i made my way out and headed straight to the panwaala gumti outside my office.I dashed at he squeaky counter and asked for a cup of tea and a cigarette.Waiting for the tea to come i placed myself on the rickety bench outside and started lighting the cigarette.

Puffing around i was thinking of some bizarre subject and was staring at the vehciles passing by.But a light rustling sound of wood diverted my attention.I noticed a small kid who was standing just at the other end of the bench.I looked at him with my scanning eyes;he would have been a two or three year old village lad.He was wearing just a tshirt and was barefooted.His hair was an unorganized nest and seeing his condition it was evedient that he would not have bathed for long.There was something attractive in that kid.Maybe it was his big questioning eyes or the way he was playing with his chewing gum.He was squeezing out the chewing gum from his mouth and was placing it on the bench;making a "vroom" sound he was rubbing it hard on the bench then again placing it in his mouth.Somehow he had realized that it was making me uncomfortable;but he carried on doing it with a grin on his face.My inability to converse in Tamil made me put only hand gestures which conveyed "stop doing that".But he never bothered and continued with his work.I still had the cigarette in my hand and it was burning with more conviction as i was staring at the child with scolding eyes.But seeing his response i turned back and  started staring at the road again.
Suddenly he came close to me and started doing the same play around with the chewing gum.With my hand gestures i again tried to convey him that"this is not good";but in the process i didnt realize that my cigarette fell on his foot.He started crying ;I tried to console him but it was not proving helpful.So in order to bribe him i bought few chocolates and a packet of biscuit.I gave these stuff to him and within seconds he disappeared.I didnt realize why he ran away;but it made me happy that the scene got over.I paid the shopkeeper and returned back.


Several days passed and I had forgotten the incident.I used to go to the gumtee time and again but nevr saw that kid there,neither I cared.

One fine usual day at office i came out to complete my quota of tea and cigarette at the gumtee.I went inside the shop asked for tea and cigarette and as usual placed myself on the bench outside.As i was puffing around I saw the same child playing with a puppy on the other side of the road.Somehow he noticed me and i realized he was coming towards me.I was filled with apprehensions that he will again make hue and cry and run away when his motive is fulfilled.He came klose to me and it made me uncomfortable;he uttered something in Tamil which i was unable to understand;the only word which i could understand was CHOCOLATE.I somehow felt that he wanted chocolates.I decided to buy chocolates for him again.SO i went inside bought some chocolates and a packet of biscuit and handed over to him.
He again ran away.But this time he went on the other side of the road.I saw him feeding his puppy the chocolates and biscuit I gave him.

And it made me think "is it the "CHOCOLATE" the "CHEWING GUM" Or the "CIGARETTE" which made me realize a small but imprtant lesson?"

PS:1)We are very judgemental about things and in the process we tend to neglect petty emotions which are not really petty.
2)When I was telling the child not to do the thing he was doing with the chewing gum as it was not good and healthy;I was holding a cigarette in my hand.What an irony.

FIR WAHI SHAAM THI (TRIVENI)

hum kuch behke se the;
tum kuch alag alag..
baithe jo hum saath me;ek daastaan si ban gyi....

tumhaire paimaane ka jaam jo chalak utha...
saaki ne poori botal udel di....
is raqeeb ka khayal kise tha;bas peene ki hod thi...

ham tum hote;tum ham hote..
toh ye zindagi aisi masroof naa hoti...
per kya karein is ham-ham me hi saari zindagi beet gyi...

kalam;kaagaz; khud(a) aur tumko...
rakhta tha saath me...
bas kuch sikkon ki kami thi shaiyad...

chamakte shaam ko dhundhla banaa diya...
chalakte jaam ko geela bana diya....
peene baithe jo saath me;raat ko ujla bana diya...

jalti cigarette ne kai baar nasihat di...
ki khud toh jal rhi hun aur tumhen bhi jala rhi hun..
per ishq aur tumne toh ek jhonke me hi jalaa daala..

daudti- bhaagti -dhokaa deti is zindagi mein...
bas is takiye ka hi sahara hai..
jo raat ko gale lagaata hun toh subah bhi saath milti hai...

lagta hai bas yahin tak ka saath tha humaara...
ab meel ke patharon per do sahron ka naam likha pada hai..
aur door ek mod bhi nazar aa rha hai...


AMRIT RAJ
Dediacted to the people who love triplets.
Its the time we are parting away and this is for the people who have given me  company everytym.
The drinking sessions in BIT have been  awesome...
I have amused and annoyed many of u..but the company u all gave me wuld be cherished for lifetime..
Keep drinking and call me if u want some more company....there is little time left.. :(



7.05.2011

MAA

Jab bhi kisi bacche ko maa ki god me dekhta hun..
Teri ek saundhi si tasak mere man me lagti hai..
Maa tu toh batla deti hai ..
Per Main ye kaise batlaaun ki tu kitni yaad aati hai..

Bhooka thakaa haara jab ghar pahuchta hun..
Finke se khaane me ghar ki roti ki mehak khojne ki koshish karta hun..
Maa tu toh khila deti thi..
Ab teri woh doodh roti bahut yaad aati hai..

Subah ki bakjhak me kisi tarah uthta hun..
Roz sirhaane ghadi rakh ke sota hun..
Maa tu toh utha deti thi...
Ab tera woh aawaaz dena bahut yaad aata hai..

Kabhi baazar nikalta hun..
Idhar udhar bhatakta firta hun..
Maa pehle tu saath hoti thi..
Ab woh dukaan waale se molbhaaw bahut yaad aata hai...

Office me hui choti si baat ko ..
Main dil pe laga leta hun..
Maan pehle tu  samjhaa deti thi..
Ab woh papa ki daant pe tera pyaar barsaana yaad aata hai..

Ab kapdon kitaabon ko bikhra hua paata hun..
Press ke liye dhobi ke paas jaata hun..
Maan pehle tu ye sab kar deti thi..
Ab woh tera subah moje dhundh ke laanaa yaad aata hai..

Jab bhi sar dard karta hai mera..
Ek saridon ki tablet le leta hun..
Maan pehle tu apne pyaar ki shishi jam kar mere sar pe udelti thi..
Ab woh tera sar pe dheeme dheeme haath firaana yaad aata hai

Maana maine batlaaya nahi tha..
Per teri har ek baat maine dil se laga rakhi hai..
Is baar ghar lautunga toh fursat se tujhse baat karunga
Fir ye naa kehna ki beta ab tu badal gya hai...

PS:Not a poem as such..Take it as it comes.. 

AMRIT RAJ


28.2.2012

Kuch dil se

patharon ko anguthiyon me saja ke rakhne waalon..
aise pathar naa ban jaana...
ki silan bhi thehar ke nikal jaaye...

bachpan me kuch cheezon ko bahut sambhaal ke rakhta tha..
wo rubber waali pencil;woh double decker pencil box..
aajkal un yaadon ko sambhaal ke rakhta hun..

bat aur wicket ghar ki aangan me pada tha..
cycle bhi apni bechargi pe afsos kar rhi thi..
bas ek video game ka remote bahut khush tha..

super commando dhruv aur naagraj...
woh starline woh vishdant saanp..
yeh toh bas kal ki hi baatein hain..

tiffin box me kya hai..
ye hot topic hua karta tha..
padhai toh bas bahaana tha..

mowgli mahabharat shaktimaan...
inse bahut gehra sa rishta hua karta tha..
sab sunday ki subah darwaaza khatkhataate the..

garmi ki chuttiyon me naani ghar jaana..
woh aam khaana woh baarish me nahaana..
ab bhi un aam ke tikolon ki tarah hara hai sab..

samay ki sui aaj baar baar ishaara karti hai..
waapas laut toh nahi sakte..
per suiyon ka milna bichadna yaad kar sakte hain..

(PS:not a pOEm just a collection of triplets)

March 18 2012

मेरी साइकल

वो रही एक छोटी सी पगडंडी ..

दौड़ती भागती एक्स्प्रेस्स सड़कों के बीच..

उसपे दौड़ती मेरी साइकल...

पेट्रोल की कीमतों से बेख़बर..

पंक्चर हो भी तो कोई दुख नहीं..

ज़िंदगी धीरे ही चले तो सही...

पैंडल मारता थका हारा मैं...

धीरे से इठलाती मेरी साइकल..

जाने के निशान बने पड़े है..

पर घांस पे चलना मुझे पसंद है..

पैंडल की कीट पीट ..

लोगों का आना जाना...

सड़कों पे तो बस तेज गाड़ियाँ होतीं हैं..

यहाँ तो चलते बात करते लोग भी हैं..

प्रदूषण दूर सड़को पे है ...

ठंडी बयार ने आकर कानो मे मुझसे कहा...

यहाँ धीमे से सोच समझ के चलता हूँ मैं..

सड़कों की भागा दौड़ी में एक उँची लिमिट है..

धीरे चलने की कोई लिमिट नहीं है..

टूटना मरना दूर भागना ज़िंदगी है..

धीरे चलना धैर्य का परिचय...

तो क्या सड़को से वास्ता तोड़ लूँ मैं...

बहुत जालिम हैं सड़कें..

पर ज़िंदगी से परे नही हैं...

ज़िंदगी की पगडंडी सड़कों के बीच ही तो है..

इसलिए मैं और मेरी साइकल..

सफ़र का मज़ा लेने की सोच मे है..

सड़कों और पगडंडियाँ से..

साइकल की चाल नही बदलेगी कभी..

PS: An insightful attempt.. hope people uncover it.. some random thoughts which came to my mind after conversing with a dear friend. . aur sudhaar ki gunjaiish hai waise...but this is the first draft..


31.05.2012

माइ डैडी स्ट्रॉंगेस्ट

माइ डैडी स्ट्रॉंगेस्ट कहके
मुझे ओल्ड एज होमे मे छोड़ आओ..
कैसे संभाल पाओगे मुझे..
सारी दुनिया का बोझ जो तुमपे है

अम्मा भी तो नहीं हैं तुम्हारी..
उसके ताने तो मिश्री जैसे कड़वे हुआ करते थे..
अब परेशानी होती है ताने चबाने में..
डाइयबिटीस जो हो गया है..

तुम ऑफीस के काम पे ध्यान दो..
बीवी की बातों को सर आँखों पे लो..
एक्सपीरियेन्स से बोल रहा हूँ..
वेटरेन खिलाड़ी रहा हूँ इस फील्ड का..

सन्नी का फ्यूचर ब्राइट हो बस..
मेरी धुंधली आँखों को आराम दो..
तुम मेरी आँखों की फिकर क्यूँ करते हो..
उसके एजुकेशन पे ध्यान दो.. 

आजकल रिसेशन का दौर है..
और मैं अनप्रोडक्टिव आदमी ठहरा..
असेट नही अब लाइयबिलिटी बन गया हूँ..
घर की ईकोन्मी के लिए ठीक नही..

इसीलिए कह रहा हूँ बेटा..
डिसइनवेस्टमेंट का दौर है..
माइ डैडी स्ट्रॉंगेस्ट का तमगा लगाओ..
और बाज़ार में बेच डालो..

और अगर रिटर्न्स सही नहीं मिल रहे..
तो इस लाइयबिलिटी की किश्तें..
हर मुश्त ओल्ड एज होम पे पहुँचा आना.
EMI का बोझ ज़्यादा दिन नही रहेगा..

बस एक बात कहनी है बेटा..
मेरे जाने के बाद ..
मेरी आराम कुर्सी और लाठी को संभाल के रखना
मेरी अस्थि सजाने के काम आयेंगी..PS:Fathers day special 

17.06.2012