सोता हूँ भूखे पेट और
सपनो में भी बिलखिलाता
मेरा नाम है सन्नाटा और
मुझे बोलना नहीं आता
करता हूँ दिन भर चाकरी और
थककर भी रुकना नहीं आता
मेरा नाम है सन्नाटा और
मुझे बोलना नहीं आता
मुझे बोलना नहीं आता
बच्चे बीवी में अरमान गुम गये
और मुझे कुछ नज़र नहीं आता
मेरा नाम है सन्नाटा और
मुझे बोलना नहीं आता
ज़िंदगी का मकसद समझ नहीं आता
मेरा नाम है सन्नाटा और
मुझे बोलना नहीं आता
घर में रोटियाँ पकाती हूँ
मेरा दिल कुछ और पकाता
मेरा नाम है सन्नाटा और
मुझे बोलना नहीं आता
घर में बैठकर बारिश देखता हूँ
मन है फिर भी बाहर नहीं जाता
मेरा नाम है सन्नाटा और
मुझे बोलना नहीं आता
ग़रीब हूँ बस पेट दिखता है
दिहाड़ी में दिन है गुज़र जाता
मेरा नाम है सन्नाटा और
मुझे बोलना नहीं आता
नज़रें मुझे हवस से घूरती हैं
कोई मुझे छेड़ता,कोई ताने सुनाता
मेरा नाम है सन्नाटा और
मुझे बोलना नहीं आता
अरमानों के मौसम बदलते हैं
मैं कदम नहीं बढ़ाता
मेरा नाम है सन्नाटा और
मुझे बोलना नहीं आता
------अमृत
Curious is the fact that I could see this poem as both - a reflection of you, and an effacement of you. Perhaps even aspirational in part.
ReplyDeleteIn any case - beautiful expression. The art of using refrains, I must learn from you.
Well ! To be honest I don't think much when I write. I don't prepare,I don't visualize,I just let it go whenever I feel like writing.And its about the flow of pure thoughts which surface as a poem. So I don't know if its my reflection or my effacement,it might be a part of me,me as a whole or anyone else in my eyes.And I have to learn a lot from you as well. Regularly writing is one,putting it on social media is another and getting positive out of everything is one more.
DeleteI like your blog's headline" I don't judge the universe,I just worship it in all its hues"...Seekhna padega :)