Friday, August 30, 2013

मेरी साइकल

वो रही एक छोटी सी पगडंडी ..

दौड़ती भागती एक्स्प्रेस्स सड़कों के बीच..

उसपे दौड़ती मेरी साइकल...

पेट्रोल की कीमतों से बेख़बर..

पंक्चर हो भी तो कोई दुख नहीं..

ज़िंदगी धीरे ही चले तो सही...

पैंडल मारता थका हारा मैं...

धीरे से इठलाती मेरी साइकल..

जाने के निशान बने पड़े है..

पर घांस पे चलना मुझे पसंद है..

पैंडल की कीट पीट ..

लोगों का आना जाना...

सड़कों पे तो बस तेज गाड़ियाँ होतीं हैं..

यहाँ तो चलते बात करते लोग भी हैं..

प्रदूषण दूर सड़को पे है ...

ठंडी बयार ने आकर कानो मे मुझसे कहा...

यहाँ धीमे से सोच समझ के चलता हूँ मैं..

सड़कों की भागा दौड़ी में एक उँची लिमिट है..

धीरे चलने की कोई लिमिट नहीं है..

टूटना मरना दूर भागना ज़िंदगी है..

धीरे चलना धैर्य का परिचय...

तो क्या सड़को से वास्ता तोड़ लूँ मैं...

बहुत जालिम हैं सड़कें..

पर ज़िंदगी से परे नही हैं...

ज़िंदगी की पगडंडी सड़कों के बीच ही तो है..

इसलिए मैं और मेरी साइकल..

सफ़र का मज़ा लेने की सोच मे है..

सड़कों और पगडंडियाँ से..

साइकल की चाल नही बदलेगी कभी..

PS: An insightful attempt.. hope people uncover it.. some random thoughts which came to my mind after conversing with a dear friend. . aur sudhaar ki gunjaiish hai waise...but this is the first draft..


31.05.2012

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