Tuesday, December 17, 2013

एक सपना



दो रास्ते;अंजाना मैं..
चलता रहा..

दो बंदूकें;निशाना मैं..
संभलता रहा..

दो लपटें;परवाना मैं..
जलता रहा..

दो नज़रें;नज़राना मैं..
झलकता रहा...

दो किससे;अफ़साना मैं
बनता रहा.

दो लहरें;किनारा मैं..
मचलता रहा...

दो पैमाने;ज़माना मैं..
छलकता रहा...

एक सपना;करवट मैं..
बदलता रहा..


12.05.2012

Saturday, December 7, 2013

ए रात तू सोती कैसे है?

बिस्कुट के कड़ कड़ मे..
हवा के सर सर मे.. 
ठंड की थर थर मे...

नाक की सुड़ सुड़ मे...
कुत्ते की गुर गुर मे..
मिक्स्चर की चुर चुर मे...

दरवाज़े की ठक ठक मे..
दिल की धक धक मे..
दीए की भक भक मे..

चाय की सुड़क सुड़क मे.. 
पानी की डूबक डूबक मे..
रोने के सुबक सुबक मे...

बिजली के कड़ कड़ मे..
पेपर के फड़ फड़ मे..
बादलों के घड़ घड़ मे..

बर्तन की ठन ठन मे..
सिक्कों की खन खन मे..
झींगुर के झन झन मे..

ए रात तू सोती कैसे है?
PS: An alliterated sattire/description of the sleepless long nights in Delhi

Wednesday, December 4, 2013

कुर्सी

कुर्सी
"हर बात नयी",ये बात कही,
पर फिर से वही कहानी है;
वही दो टके की जनता है,
वही जीत की राह बनानी है|

हर वोट यहाँ पेर प्यारा है,
उनका बस यही सहारा है;
घर छूट गया -कोई बात नहीं
बस कुर्सी का ही नारा है|

कुर्सी का बल ही तो बल है,
बत्ती की चकाचौंध ही संबल है
तेरे ही दर पे ऐ जनता ,
वोटों का मीठा सा फल है|

तू फल की चिंता छोड़ यहाँ,
बस अपना दरश दिखाना है;
वो ऐसा जादू छेड़ेंगे ,
हर वोट उन्हीं को जाना है|

मन में तेरे है बात कई,
पर बातों पर अधिकार नहीं;
सब वोट रिझा कर पा लेंगे,
बस और कोई सरोकार नहीं|

कुर्सी पर जैसे ही बैठे;
रहता उनको कुछ याद नहीं
हर भूले बिसरे गीतों की,
सुनता कोई फरियाद नहीं|


कुर्सी का सुख कुछ ऐसा है,
इसके दम पे ही पैसा है|
वो वोट तो बस एक चंदा था,
ये ही तो असली धंधा है|

उठ जाग ,की क्यूँ तू सोता है?
हर दुख को यूँ ही ढोता है;
आवाज़ उठा;बस बटन दबा;
फिर देखना क्या क्या होता है||

AMRIT RAJ

Tuesday, December 3, 2013

कुछ बिखरे से सवाल

कुछ साल पहले  की ही तो बात है जब मैं कॉलेज की गलियारों में मदमस्त  हाथी की तरह हुडदंग मचाया करता था. अमूमन ज्यादा सोचता नहीं था बस जो मन में आता था वो करता था।पढ़ने में ज्यादा मन लगता नहीं था तो इधर उधर कि चुहलबाजियों में समय काटा लेता था.कॉलेज भी मैं कुछ ख़ास सोच कर आया नहीं था,बस एक ही सोच शुरू से ही मन में घर कर गयी थी कि कुछ  अलग करना है।पर ये मेरे भाग्य का खेल बोलिये या फिर मेरी डेस्टिनी;कॉलेज के चार साल कुछ ऐसे छु-मंतर हुए कि ये सोच सोच ही रह गयी। इसमें मेरी गलती है भी और नहीं भी ;एक तो मैं ठहरा निखट्टू आलसी और दूसरा  मुझे ज्यादातर चीज़ें बैठे बिठाये प्लेट पे मिल गयीं। वो इंजीनियरिंग टर्म में कहते हैं ना कि ज्यादा फाइट नहीं मारनी पड़ी। तो status quo बनाये रखने में ही भलाई समझी और कुछ अलग करने के लिए मन से एफर्ट नहीं किया।बस दोस्तों के साथ गपबाजी और हवाबाजी में ही समय F1 कार की तरह सांय करके निकल गया.

खैर कुछ अलग नहीं करने का मलाल भी नहीं है क्यूंकि मैं ये  कभी निश्चित ही  नहीं  कर पाया  था कि करना क्या  है.बस  बहते पानी की तरह  इधर उधर अटखेलियां खाता  रहा कॉलेज  के चारों साल.पर  ये जरूर है कि जितना सीखा ,जो कुछ देखा सब एक इंद्रधनुष की तरह अब भी मन के पोलराइड पे  सन्डे के ४ बजे के शो की तरह उसी उत्साह के साथ रेगुलरली  आता है.

शुरू से ही मुझे चीज़ें बहुत कम एफर्ट करके ही मिल गयीं हैं ;वैसे तो मुझे अपने मुह मियाँ मिट्ठू नहीं बनना चाहिए पर कुछ टैलेंट तो जरुर है जो भगवान् ने मुझे अभिमन्यु  की तरह माँ की  पेट से ही दिया है ;ये टैलेंट मुझे हर वक़्त बचाता रहता  है। बचपन में शायद निचली  क्लास में मैं टॉप कर गया था और इसका श्रेय मेरी माँ को ही जाएगा मुझे नहीं ।उसके बाद तेज़ होने का एक टैग  लग गया;और अपनी मार्किट वैल्यू बनाये रखने के लिए मैंने फिर रेगुलरली ही टॉप किया। ये सिलसिला अच्छे खासे दिनों तक चला जो जाके टेंथ(10 th) क्लास में ब्रेक हुआ। उसके बाद भी मैंने एक above average स्टैण्डर्ड बनाये रखा। पर सच कहूं तो मुझे याद नहीं कि मैंने शुरूआती दिनों को छोड़ के कभी  बहुत मन से एफर्ट किया हो -या तो एग्जाम आने से पहले एक डर सा बन जाता था और अपनी इज्जत बचाने के लिए मैं पढाई करता था या फिर वो एक शो ऑफ स्टेटस बनाये रखने का मज़ा था। खैर जो भी था ऐसा नहीं है कि मैं बांकी चीज़ों में इन्वॉल्व्ड नहीं था ;मुझे याद है मैंने बचपन में गाने बजाने;स्किट ;डिबेट ;रेस,क्विज; रेसिटेशन सब में इनाम जीते हैं। पर सबसे बड़ी बात ये है कि इन चीज़ों में भी मैंने बहुत ज्यादा एफर्ट नहीं किया है ;मसलन मुझे गाने का बहुत  शौक हुआ करता था और अभी भी है ;पर मैंने कभी सीखने की कोशिश नहीं की ;बांकी चीज़ों का भी शौक धीरे धीरे जाता रहा. फिर  ऊँची क्लास में एक अलग ही होड़ थी तो जो बचा हुआ मैटर  था वो भी स्वाहा हो गया.

बचपन के इस होड़ में मुझे दो चीज़ें विरासत में मिलीं एक तो procastination और दूसरा confusion.Confusion इसलिए क्यूंकि मैं इन चीज़ों में इस कदर खोया हुआ रहा कि कभी ये सही से decide ही नहीं कर पाया कि करना क्या है.IIT कि तैयारी भी कुछ येही सोच के की  थी कि अगर  तर  गए तो जीवन का ध्येय मिल जाएगा;ये सोच बचकाना थी पर आखिर मैं था तो बच्चा ही.खैर मेरी directionless और कम मेहनत कि वजह से मैं एक above average प्रीमियर  कॉलेज में जाके गिरा;कॉलेज भी मैं कुछ ऐसी ही सोच से आया था कि पढाई के अलावा सबकुछ करूँगा।पढाई के अलावा "सबकुछ" तो नहीं किया पर कुछ कुछ जरुर किया और बांकी चीज़ों के बारे में बस day dream करता रहा। खैर कॉलेज में दो बहुत अच्छी चीज़ें  हुईं एक तो हवाबाज़ दोस्त और दूसरा कॉलेज का  dramatics club. इन सब वजह से सोच में एक बदलाव जरूर आया और मेरा  रुझान फिल्मों ; लेखन;और बहुत सी चीज़ों में वापस जाग गया। मैंने उतना एफर्ट कॉलेज में  भी नहीं किया था पर फिर भी इन  सब से  इतना क्लियर हो गया था कि मेरा इंटरेस्ट क्या है.

इसके बाद फिर वही कहानी हुई जो होती आयी है। एक अच्छी नौकरी लग गयी और फिर  सबकुछ  मैंने  ठन्डे बस्ते में  डाल दिया। 6-8  महीने बहुत मस्ती की पर फिर कुछ दिनों बाद नौकरी भी जेल सी लगने लगी।बारहवीं से ही एक स्कूल खोलने का सपना था.Engineering में आके भी कई बार सोचा था इसके बारे में; तो सोचा कुछ इस मार्फ़त किया जाए इसीलिए Teach फॉर  India के लिए अप्लाई किया। सबकुछ सही हुआ;प्रोफाइल सेलेक्ट हुआ ;असेसमेंट भी अच्छा रहा बस इंटरव्यू में मैं शायद  उतना ऑब्जेक्टिव नहीं था ;उन्होंने ना कर दिया;मुझे नौकरी रास आ नहीं रही थी तो एक बड़ा decision लिया कि UPSC की तैयारी की जाए। कुछ सोशल करने  की इच्छा थी और फिर वो शो ऑफ फैक्टर भी था शायद जो बचपन से मेरे साथ tagged रहा.इसलिए बोरिया बिस्तर बाँध के  मैं दिल्ली आ गया और फिर वही घिसने की कहानी ;फिर वही कम एफर्ट में ज्यादा की आदत ऊपर से अपने बांकी इंटरेस्ट को छोड़ने की इच्छा भी नहीं थी ;सबकुछ बदस्तूर जारी रहा लेकिन इस बार सबकुछ वैसा नहीं हुआ जैसा मैं चाहता  था;जो भी इंटरेस्ट था  धीरे धीरे दूर होता गया और पढाई भी कुछ ख़ास नहीं हुई;नतीजा :"बाबाजी का ठुल्लु"। फिर से वो confusion बादल की  ओंट से बाहर आके आग उगलने लगा ;पर मैंने ज्यादा कुछ किया नहीं इसके बारे में।अपनी "chill maaro" की philosophy follow करता रहा। लेकिन जब अभी रीसेंट में मैं डेंगू  से ग्रसित था तो फिर हॉस्पिटल की बेड पर पड़ा पड़ा कुढ़ रहा था। उसी समय decide किया कि फिर से लिखना शुरू करूँगा ;फिर से अपने पुराने interests खँगालूँगा।बहते रहना ही ज़िन्दगी का मकसद है।रास्ता खुद  बखुद निकल जाता है। तो फेविकोल के tagline के जैसा मैं अपने interests को पकड़े रहूँगा  छोडूंगा  नहीं

अब भी कुछ सवाल जरुर हैं जिनके जवाब मेरे पास नहीं हैं  पर जिन सवालों के जवाब मेरे पास हैं;उन्हें मैं भूलना नहीं चाहता।बांकी अब रास्ते निकलने लगे हैं;अभी कॉलेज के कुछ दोस्तों ने एक ऑनलाइन शॉर्टफिल्म प्रोडक्शन खोला है "Loos-e-motions"  मैं भी उसका हिस्सा हूँ. हमने अपना पहला विडियो निकाल लिया है..रिस्पांस अच्छा है। ये एक अच्छा सफ़र होगा ये मेरी सोच है..इसी तरह दिल्ली में मैंने "PACH " करके एक ग्रुप ज्वाइन किया है।"PACH" माने Poetry and Cheap Humor. यहाँ  Poetry तो है पर cheap कुछ भी नहीं है. हर तरह के लोग हैं यहाँ  और देख के;सुन के आश्चर्य  होता है कि अब भी बहुत से लोगों की सोच कितनी उम्दा है और मैं सोचता था हमारी  generation पूरी तरह खोखली है. हाँ यहाँ एक चीज़ जरुर cheap  है और वो है लोगों कि हंसी। free में मिल जाती है.
अभी कुछ दिनों पहले एक विडियो देख रहा था उसी के बैकग्राउंड में ये लेख लिखा है.मुझे याद है जब मैं 6th क्लास में था तो मैं एक मंदिर गया था वहाँ पे लोग अपनी मनोकामना दीवारों पे लिखते थे ;और मैंने लिखा था "मैं बड़ा आदमी बनना चाहता हूँ"। उस समय शायद बड़े से मेरा मतलब famous से था। अब भी मैं बड़ा आदमी तो बनना चाहता हूँ पर वैसा बड़ा आदमी जिसका दिल बड़ा हो;जिसका मन बड़ा हो;जिसके सपने बड़े हों। वो बचपन वाला बच्चा अब बड़ा हो गया है.आमीन

ये रहा वो विडियो। Dreams Unborn


Loos-e-motions ka video link jo humne banaaya hai:
http://www.youtube.com/watch?v=qfwC6xBqTVI&feature=youtu.be

देखो मगर प्यार से

My love for adjectives
PS:the sound comes if read in a particular manner with pause

बेढब उँची छोटी लंबी चौड़ी 
बैठी उठी चलती रूकी दौड़ी 
हल्का फुल्का ज़्यादा थोड़ा कम
बुझा जला भुना ठंडा गरम

खट्टा मीठा कसैला तीखा नमकीन 
काला उजला नीला हरा रंगीन
उपर नीचे पहले आगे पीछे
सड़े गले कच्चे पक्के अच्छे

मद्धम गहरे धुंधले चटक रुपहले
बादशाह बेगम गुलाम नहले दहले
सीधा टेढ़ा आड़ा तिरछा गोल
मोटा पतला हल्का भारी ढोल

भरा पूरा खाली सूना घना
ढला गिरा लदा झुका तना
हँसी ख़ुशी रोते गाते हैरान
बच्चे बूढ़े जीव जन्तु इंसान

1.12.2013

Wednesday, November 20, 2013

परिचय

आपाधापी  में कशमकश  में ,कभी इस रस में कभी उस रस में
जीवन के २ ४ बरस में,  अब भी हूँ मैं असमंजस में

आनंद में अचरज में ,कभी  सपने  में कभी हरकत में
ख़ामोशी में फुर्सत में ,अब भी हूँ मैं असमंजस  में

दुनियादारी में दुकानदारी में;कभी मन से कभी लाचारी में
रणभूमि में सर्कस में , अब भी हूँ मैं असमंजस में


अभिनय में आचरण में ,कभी ह्रदय से कभी अहम् में
मधुर में कर्कश में,अब भी हूँ मैं असमंजस में

आखेट में विचरण में  ,कभी थल पर  कभी गगन  में
शिथिलता में करतब में,अब भी हूँ मैं असमंजस में

क्रोध में स्मरण  में,कभी सोचकर कभी मगन में
नास्तिकता में मजहब में,अब भी हूँ मैं असमंजस में







Monday, November 18, 2013

FIR SE WOH BACHPAN KE DIN JEENE KA MAN KARTA HAI


ON CHILDREN'S DAY: AN OLD POEM
fir wahi avon cycle chalane ka jee karta hai...
fir se ret mein ghar banane ka jee karta hai...
fir se skool bas mein chad jane ka jee karta hai..
fir se wahi bachpan beetane ka jee karta hai...

fir se maa ki daant sun ke uthne ka man karta hai..
fir se chaat ke thele pe rookne ka man karta hai...
fir se apne uniform ko ghisne ka man karta hai...
fir se bas ki bheed mein peesne ka man karta hai..

fir se homewrk ki tnsn lene ka man karta hai..
fir se lunch mein khelne ka man karta hai....
fir se papa ki daant jhelne ka man karta hai...
fir se pedon pe chad ke hilne ka man karta hai...

fir se copy bhul jaane ka man karta hai...
fir se bahane banane ka man karta hai....
fir se baaris mein bheeg jaane ka man karta hai..
fir se maa ke pair dabaane ka man karta hai...

fir se gullak mein paise daalne ka man karta hai..
fir se papa ke pocket se paise nikalne ka man karta hai..
fir se kisi jhabre puppy ko paalne ka man karta hai..
fir se wahi pal jeene ka man karta hai....

fir se maa ki god me sone ka man karta hai,..
fir se papa ki pitai se rone ka man karta hai...
fir se wahi abcd likhne ka man karta ...
fir se woh bachpan ke din jeene ka man karta hai...
BY AMRIT RAJ
i have changed a lot...
3.07.2010